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बंजारे / पूनम सिंह

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शाम के घिरते अंधेरे में
तंबू गाड़ते बंजारे
कितने बेपरवाह होते हैं
अपने पड़ाव और ठिकाने को लेकर
कोई ठाँव कोई गाँव
नहीं बाँध पाता उनके पाँव
सूर्य के रथ पर हमेशा
लदे होते हैं उनके असबाब

अदभुत होता है
सरल जटिल के युग्मों से बना
उनकी आवारा ज़िन्दगी का रूमानीपन
वह बेमिसाल मौजीपन जो
ठेंगे पर रखता है जमाने को

पथराये दुख की तरह काबिज
उनकी आँखों में नहीं होती कोई
अभावग्रस्त जिन्दगी की परछाईं
हर लम्हा दर्द का एक
खूबसूरत फ़नकारी है उनके लिए

तनी रस्सियों पर सिर ऊँचा किये
उनके अभियानी पैरों की थिरकन
उड़ान भरने को आतुर
परिन्दों के डैनों की तरह
उल्लासित उनकी बाहें
जब हुमक हुमक कर
दिशाओं को चुनौती देती है
तो अदृश्य पर्वत
अनजान नदियों की साँसों में
पसीने की आदिम गंध उफनने लगती है
इतिहास की गुफाओं में
जीवित पत्थरों का संगीत फूट पड़ता है
आदिभूमि की घाटियाँ
अहर्निश जीवन के राग से
झंकृत हो जाती है

चरम तन्मयता के उस क्षण में
एक लय एक ताल में
अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी
सूर्य के रथ पर सवार
कुनबे को अपलक देखती
अपूर्व रोमांच से भर जाती है
 
पाषाण युग से परमाणु युग तक
हवा के पुल पर
सभ्यता के तंबू गाड़ते
साहस की इबारत गढ़ते बंजारे
बेखबर हैं
इन सारी क्रियाओं प्रतिक्रियाओं से

उन्हें नहीं मालूम
ज़िन्दगी की कितनी कठिन शर्त्तों पर
टिकी है उनकी पहचान
पहचान के लिए कितना कठिन है
तनी रस्सियों में काँपती प्रत्यंचा सी
हिलकोर पैदा करना
समय संधान की मुद्रा में
समय के साथ होना