बंदर-आतंक / विवश पोखरेल / सुमन पोखरेल
अपने ही घर को गिराकर
एक झुंड बंदरों का
शहर में घुस आया है।
सावधान लोगों,
घर से बाहर मत निकलना
फिर से कर्फ्यू लग सकता है
बेवजह बंदरों के आतंक से
एक शांत बस्ती
बर्बाद हो सकती है
फिर अनगिनत बेटे–
अचानक गायब हो सकते हैं।
कई प्रकार के हैं ये बंदर
बंदरों का रंग अलग है
जाति अलग है
छेड़छाड़ अलग है / उत्पात अलग है
बंदरों के युद्ध में हमेशा इंसान
परेशानी भोग रहे हैं / हैंत्रास भोग रहे हैं ।
कभी इंसानों के–
सपनों पर सवार होकर
स्वार्थों के झूले झूलते हैं बंदर
कभी पशुपतिनाथ मंदिर के घंटे को बजाते हुए
राष्ट्र-संकट की घोषणा करते हैं बंदर
कभी उछल-कूद करते हुए
कुर्सी के पैर पकड़ने को पहुँच जाते हैं बंदर,
चल रहा है –
एक पोटली उजाले के बंटवारे में
बंदरों की छीना-झपटी
सूरज की किरणों के रेशों से
आकाश को छूने की तकनीक सिखाते हुए –
सूखे घावों को कुरेदकर
सुबह की मद्धम धूप में बैठकर –
संतोष के जुएँ ढूँढ़ रहे हैं बंदर
आँखों पर भ्रम के हरे चश्मे लगाकर
प्रत्येक मन को भ्रमित करते हुए
शिशिर को वसंत दिखा रहे हैं बंदर।
और कितना देखें –
बंदरों के नाच, नौटंकी और करतब।
चौराहे पर – चबुतरों पर लगातार
जात्रा दिखा रहे हैं बंदर।
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