बंदौं गोपी-जन-हृदय जो हरि राखे गोय / हनुमानप्रसाद पोद्दार
बंदौं गोपी-जन-हृदय जो हरि राखे गोय।
पलकहुँ नहिं निकसत कबहुँ, मानि परम सुख सोय॥
बंदौं गोपी-मन सरस, मिल्यौ जो हरि-मन जाय।
हरि-मन गोपी-मन बन्यौ, करत नित्य मन-भाय॥
बंदौं गोपी-राग सुचि, जाके बस हरि होय।
नित्य रिनी बनि परम सुख लहत, ईसता खोय॥
बंदौं गोपी-नेह, जो हरि-पद-रज नित सेय।
भगवत-रूप प्रकास तैं बिनसे सब रस हेय॥
बंदौं गोपी-भाव, जो नित प्रियतम-सुख-हेतु।
बढ़त पलहिं-पल भंग करि सब मरजादा-सेतु॥
बंदौं गोपी-ब्रत परम, स्व-सुख-वासना-हीन।
सती-धर्म राखत सतत जो प्रिय-सेवा-लीन॥
बंदौं गोपी-प्रनय, जो हरि आकरषै सत्य।
आकरषत जो ध्यान में बरबस मुनि-मन नित्य॥
बंदौं गोपी-नाम, जे हरि मुरली महँ टेर।
सुख पावत हरि स्वयं करि कीर्तन बेरहिं-बेर॥
बंदौं गोपी-रूप, जो हरि-दृग रह्यौ समाय।
निकसत नैकु न नयन तैं, छिन-छिन अधिक लुभाय॥