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बंद और खुली आँखें / तरुण भटनागर

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जब बंद होती हैं, आंखें,
तब एक दीवार,
लाल, काली सी।
जब खुली होती है आंख,
तब एक खिड़की,
मनचाही सी।
जब बंद होती है, आंख,
मैं चाहकर,
मंुह फेर लेता हंू।
जब खुली होती है आंख,
तब,
मेरी देह किसी आैर की देह पर होती है।
जब बंद होती है, आंख,
कुछ लोग मुझे मनाते हैं।
जब खुली होती है, आंख,
तब
मैं पागलों की तरह,
लोगों से बतियाता हंू।
जब बंद होती है आंख,
आंसू टपककर अलग नहीं हो पाते हैं,
जबकी उनको टपकाने ही,
मैं मंूदता हंू आंखें।
जब खुली होती है आंख,
स्याही साक्ते सी होती है आंख।
जब बंद होती है आंख,
तब रौशनी डराती नहीं है।
जब खुली होती है आंख,
तब अंधेरा बहुत डराता है।
जब बंद होती है आंख,
मैं छूकर महसूस करता हंू।
जब खुली होती है आंख,
देखना कमजोर कर देता है,
छू कर महसूस करने को।
मैं,
आंखें बंद कर अंधा नहीं हो सकता।
आंखें बंद कर भी दिखते हैं,
दृश्य आैर गुजरते क्षण
मैं
आंखें खोलकर जाग नहीं पाता।
क्योंिक जागने का,
आंखें खोलने से कोई मतलब नहीं।
मैं,
बंद आंखों से,
सपने नहीं, संसार देखता हंू।
वह संसार,
जिसे मेरी खुली आंखों ने बनाया है,
भीतर की कालिख पर।

कितना अंतर है,
आंखें बंद कर,
आैर आंखें खोलकर उड़ने में।

एक सीमा लांघ गई खुशी,
तो एक मौत,
कितना अंतर है,
आंखें बंद कर,
आैर आंखें खोलकर प्यार करने में।
एक अकारण,
तो एक देखकर।
कितना अंतर है,
बंद आैर खुली आंखों के शब्दों में।
एक जिसे लिखा नहीं जा सकता,
तो एक भाषा में गढ़ा,
सुधारकर लिखा।
कितना अंतर है,
बंद आैर खुली आंखों से दिखते आदमी में।
एक का खयाल नहीं,
तो एक बार-बार चेताता है।
मैं आज तक,
बंद आैर खुली आंखों में से,
किसी एक को चुन नहीं पाया हंू।
मेरी पलकें,
मेरे मन पर चिपक गई थीं,
आैर उसने,
मेरी आंखों को बेमानी बना दिया था।
आज आंख,
देखने को,
या अंधेरों को नहीं हैं,
वह सिफर्,
भीतर के स्पंद को है।