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बंद पलकों में नमी लब पर हँसी देखी न थी / रंजना वर्मा

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बंद पलकों में नमी लब पर हँसी देखी न थी।
झिलमिलाती बादलों में चाँदनी देखी न थी॥

ढूँढ़ते फिरते रहे हम उम्र भर महबूब को
था जहाँ पर साँवरा वह ही गली देखी न थी॥

छोड़कर घर द्वार हरि का नाम ले मीरा चली
इस तरह मचली हुई दीवानगी देखी न थी॥

अश्क़ से रुख़सार तर बोझल नज़र भी इस क़दर
पीर सारी पी गयी जो वह खुशी देखी न थी॥

रौंद बीहड़ तोड़ पर्वत दौड़ती सागर तरफ़
प्यास सदियों की लिये बहती नदी देखी न थी॥

फूँक कर घर लोग आए हैं तमाशा देखने
इस कदर घर में कभी भी रौशनी देखी न थी॥

खींच ले जो पाँव अपनों को गिराने के लिये
बेच दे खुद देश को ऐसी सदी देखी न थी॥