भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंद लिफाफा / संतोष श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन दिनों
हम मिला करते थे
चर्च के पीछे
कनेरों के झुरमुट में
विदाई के वक्त
हमारी अपार खामोशी में
तुमने दिया था लिफाफा
इसे तब खोलना जब

हरकू के खेतों में
धान लहलहाए
उदास चूल्हे में
रोटी की महक हो
फाकाकशी से कंकाल काल हुए
बच्चों की आँखों में
तृप्ति की चमक हो

ठिठुरती सर्दियों में
गर्म बोरसी हो
बरसात में टूटे छप्पर पर
नई छानी हो
बस तभी खोलना इसे

बंद लिफाफे को खोलने की
जद्दोजहद में
उम्र गुज़र गई
आज जब खुला तो
उसमें तुम्हारे जाते हुए
कदमों की केवल पदचाप दर्ज़ थी