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बंद हुये न कभी भी जो दर, देखे है / सूरज राय 'सूरज'

बंद हुये न कभी भी जो दर, देखे है।
मेहमानों को तरस गये घर, देखें हैं॥

सीसीटीवी, कुत्ते, दरबानो-गुंडे
महलों के हर कमरों में डर देखे हैं॥

मिली नहीं छत घर की हो या तुरबत की
ऐसे भी किस्मत से बेघर देखें हैं॥

मैं से बढ़कर और अभागा कोई नहीं
हमने दुनिया भर के अक्षर देखे हैं॥

अश्को-पसीना भूल गये जो नदियों का
ऐसे नमकहराम समन्दर देखे हैं॥

नन्हें बच्चे जब तक न समझें भाषा
अंदर-बाहर एक बराबर देखे हैं॥

अकड़े-अकड़े रहें बुज़ुर्गों के आगे
पत्थर के आगे झुकते सर देखे हैं॥

इत्रफरोशों! पूछें फूल गुलाबों के
क्या तुमने काँटों के बिस्तर देखे हैं॥

मन्दिर का पत्थर भी जिनसे शर्मिंदा
हाड़-मांस के ऐसे पत्थर देखे हैं॥

सच में "सूरज" तेरे जैसा कोई नहीं
हमने लाखों स्याह मुक़द्दर देखे हैं॥