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बकरियों का उल्टा आसमान / जयप्रकाश मानस

तालाब के किनारे
बकरियाँ चलती हैं धीरे-धीरे,
जैसे छत्तीसगढ़ की माटी में
किसी पुरानी बात का धागा
पैरों से बुन रहा हो।

पानी में पेड़ उल्टे खड़े हैं,
आसमान को देखते हुए,
जैसे कह रहे हों—
हम भी यहाँ हैं,
बस थोड़ा उल्टा सोचते हैं।

एक आदमी किनारे पर बैठा है,
उसके हाथ में लाठी,
लाठी में गाँव की थकान,
और थकान में एक गीत,
जो बकरियों ने सुना,
पर पानी ने नहीं।

छत्तीसगढ़ का सूरज
धीरे से उतरता है,
तालाब में डूबने से पहले
वह बकरियों से पूछता है—
तुम्हें घर की याद आती है?
बकरियाँ चुप रहती हैं,
क्योंकि घर तो यही है—
यह तालाब, यह माटी,
यह हवा जो पत्तों से बात करती है।

किनारे पर एक सवाल टहलता है,
क्या पानी भी
किसी को याद करता है?
शायद करता हो,
तभी तो वह इतना चुप है।
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