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बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक़ से है / परवीन शाकिर

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बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक़ से है
यही क्या कम है के निस्बत मुझे इस खाक़ से है

ख़्वाब में भी तुझे भुलूँ तो रवा रख मुझसे
वो रवैया जो हवा का खस-ओ-खशाक़ से है

बज़्म-ए-अंजुम में क़बा ख़ाक़ की पहनी मैंने
और मेरी सारी फ़ज़ीलत इसी पोशाक़ से है

इतनी रौशन है तेरी सुबह के दिल कहता है
ये उजाला तो किसी दीदा-ए-नमनाक़से है

हाथ तो काट दिये क़ूज़ागरों के हमने
मौक़े की वही उम्मीद मगर चाक़ से है