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बगैर एक स्त्री / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कितनी घबराहट और बेचैनी थी
एक स्त्री के बगैर
पहेलियाँ चक्कर काट रही थी
रसोई के इर्द-गिर्द
एक टुकड़ा बादल था
आँखों में
डब्बे में बंद समुद्र
देह में दिनचर्या भर लहू
धूंधला चांद
पत्ते जर्द़
बसंत का खौफ
उत्स में पराजय के किस्से
कविताएँ नितांत अपनी
मौलिकता से कोसों दूर!