भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बगैर सूचना / अरविन्द श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैने धरती को ठगा
और आ गया धरती पर

ओस की बूँदे अभी-अभी टपकी थी धरती पर
अभी-अभी मादक हुई थी हवाएँ
स्वच्छ-निर्मल जल अभी था अछूता
अभी था आकाश विश्राम की अवस्था में
और मैं आ गया

यह कोई वक़्त नहीं था
मैंने कोई आदेश नहीं लिया
क्षमा करना मुझे
नहीं भेजा कोई प्रार्थना-पत्र
नहीं कटाया किसी प्रकार का टिकट कोई
और नहीं किया धरती को हमारी ज़रूरत या
गैरज़रूरत पर विचार किसी ने

बस, मैंने धरती को ठगा
और आ गया धरती पर
देवताओं को साथ लेकर !