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बचके जीवन के संघर्ष से नाटकों में लगे हैं सभी / शैलेश ज़ैदी

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बचके जीवन के संघर्ष से नाटकों में लगे हैं सभी.
कैसी अनचाही लाचारियां, अनमना झेलते हैं सभी.

रक्त आंखों से छलके अगर, कुछ उजाला दिखाई पड़े,
कन्दराओं की दहलीज़ पर, होंठ सी कर खड़े हैं सभी.

नीले आकाश की चेतना, मुट्ठियों में दबाये हुए,
पर्वतों के इरादे लिए, एकजुट हो गए हैं सभी.

पश्चिमों के सरल दायरे, ढल गए शुद्ध व्यापार में,
आत्माओं के नीलाम की, बोलियाँ बोलते हैं सभी.

ज़िंदगी की किताबें भला, कैसे पढ़ने का साहस करें,
मूर्त्त शब्दों से बचते हुए, ज़िंदगी जी रहे हैं सभी.

जन्म की छटपटाहट लिए, कितनी बुधियाएँ मर जाएँगी,
माधवों धीसुओं की तरह, साँस लेने लगे हैं सभी.