बचपन-1 / मुनव्वर राना
कम से कम बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
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जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी
जब तलक मैं नहीं बैठूँ ये खड़े रहते हैं
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जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ <ref>साफ़ ,चमकदार</ref>कपड़े थे मगर
धूल-मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा
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भीख से तो भूख अच्छी गाँव को वापस चलो
शहर में रहने से ये बच्चा बुरा हो जाएगा
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अगर इस्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता
परिंदों के न होने से शजर<ref>पेड़, वृक्ष</ref>अच्छा नहीं लगता
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धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारख़ाने तक पहुँचता है
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