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बचपन पहाड़ का / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
ए.सी.में बैठ बनती हैं अधिकार-नीतियाँ
चर्चाएँ करती रहती हैं- बड़ी-बड़ी विभूतियाँ ।
बारिश-धूप में पलता है- बचपन पहाड़ का
पढ़ने को कोसों चलता है- बचपन पहाड़ का ।
शहरों में बोझे बस्तों के ही लगते हैं मुश्किल
यहाँ घास-पानी-गोबर भी है- बोझे में शामिल ।
पहाड़ी बर्फ़-सा गलता है- बचपन पहाड़ का
होटलों में बर्तन मलता है- बचपन पहाड़ का ।
इनको जरा निहारो तुम ओ बाबूजी ! करीब से
आँखें मिलाओ ,तो जरा किसी बच्चे गरीब से ।
गिरता है और सँभलता है- बचपन पहाड़ का
बस ठोकरों में ही पलता है- बचपन पहाड़ का।
सरकारें जपती रहती हैं- नित माला विकास की
कोई तो सुध ले पहाड़ी से इस ढलती आस की ।
पहाड़ी सूरज- सा उग-ढलता है बचपन पहाड़ का
पगडंडियों में गुम मिलता है- बचपन पहाड़ का ।