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बचपन में इस दरख़्त पे कैसा सितम हुआ / मयंक अवस्थी



बचपन में इस दरख़्त पे कैसा सितम हुआ
जो शाख़ इसकी माँ थी वहाँ से कलम हुआ

मुंसिफ हो या गवाह , मनायेंगे अपनी ख़ैर
गर फैसला अना से मिरी कुछ भी कम हुआ

इक रोशनी तड़प के ये कहती है बारहा
क्यूँ आसमाँ का नूर घटाओं में ज़म हुआ

जूठे हैं लब तिरे ये उसे कुछ ख़बर नहीं
जो बदनसीब शख़्स तुम्हारा ख़सम हुआ

यकलख्त आ के आज वो मुझसे लिपट गया
जो फासला दिलों में था अश्कों में ज़म हुआ