बचपन में किसान / ब्रज श्रीवास्तव
एक बचपन था
जिसमें हम भी नन्हें से किसान थे
लेकर जाते थे कलेवा
और पिताजी पसीना बहाते हुए
हल चलाते थे
किसान तो पिता थे
उनसे भी ज़्यादा किसान थे दादाजी
जो थकते ही नहीं थे
खेती के कामों से
पूरा गाँव किसान था
जिसकी मदद करती थी नदिया
कभी कभी बुरे लोगों की तरह
ओले गिरते थे
रात में सिसकने की आवाज़ें आतीं थीं
कुछ कच्चे घरों से.
बैलगाड़ियां भर कर जातीं थीं मंडी में
किसान जब बाराती बनते थे
तो बड़ा दृश्य बन जाता था
तब किसानों के पास बाज़ार नहीं पहुंचता था
मेरे घर भी नहीं आया कोई किश्तों में
ट्रेक्टर खरीदने का लालच देने के लिये
किसान की किसान से बस काम की होड़ थी
ज्यादा अन्न पैदा करने की स्पर्धा थी
ऐसी ही होड़ों से भरा था
हमारा बचपन
जिसमें दोस्त
भी बैलों के सींगों और ताकत की
बातें करते थे
एक गांव होता था
चबूतरों की चौपालों से भरा
बचपन में कितनी बातें थीं
लेकिन सरकार की कोई बात नहीं थी
सरकारें फसलों के भाव पर सरकार नहीं चलातीं थीं
बचपन में सरकार का कोई मतलब भी नहीं था
यह तो ठीक
किसान तक
ऐसे उदास नहीं रहते थे,
ज़माना भी अब बचपन पार कर चुका है़
जैसे किसान पार कर चुका है
अपना ज़माना
पार करते हुये उसने पार नहीं किये
कर्ज़ों के तनाव.
निर्भरता पार नहीं की किसान ने
मेरे बचपन में
इक्के दुक्के किसान भी
नाम नहीं जानते थे आत्महत्या का.