बचपन से पचपन का यह सफर / प्रदीप शर्मा
थोड़ी सी आपबीती, थोड़ा सा मसाला है,
आगे या पीछे सब के साथ होने वाला है !
बचपन से पचपन का यह सफर
कैसे पंख लगा कर उड़ी उमर ?
कभी सिर पर बाल ये काले थे
लहराते थे -घुँघराले थे
आज न जाने गए किधर ?
जबसे बालों का रंग उड़ा, मैं उम्र से ज्यादा लगने लगा
अपनी ही बिटिया का देखो मैं, लोगों को दादा लगने लगा
जाने किसकी लगी नज़र !
सुनने भी लगा है महीन मुझे
कानों पे लगेगी मशीन मुझे
हर शख्स गया है चिल्ला कर !
बामुश्किल जब हम चलते हैं
सब अस्थि-पंजर हिलते हैं
जैसे बैठे हों रोलर-कोस्टर पर !
चलने पर डेंचर बजते हैं
आँखों पर चश्मे सजते हैं
हर साल मगर कम होती नज़र ।
हर बात भूलने लगे हैं हम
कई रात नींद से जगे हैं हम
सब कहते हैं हमको एलजाइमर !
अब इंतज़ार है साठी का
सीनियर सिटिज़न की लाठी का
मिले रेल में छूट, ऊंची ब्याज की दर !
मैंने प्रभु से कहा मेरे ईश्वर, मेरे साथ किया ऐसा क्योंकर
तो प्रभु बोले सुन भोले नर , मैंने बंद किए तेरे नौ दर
तू याद कभी तो कर लिया कर!