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बचपन - 16 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
कहीं ऐसा न हो यह बचपन
भावी भविष्य के सूत्र में
बंधे बिना ही, जवान हो जाए
और जिंदगी रह जाए गुमराह होकर।
खेल के मैदान और बचपन में
एक अनूठा लगाव है
यहाँ आकर बच्चा
अपनी ही खुशियों में खो जाता है।
अपने साथियों में
इतना हिल-मिल जाता है
शायद उस मैदान में
वातावरण शून्य होकर रह जाता है।
समाज में बहती हवाएँ
मैदान की खिंची रेखाओं को
पार करने की हिम्मत नहीं कर पाती।
नहीं तो वहाँ पर भी
द्वेष का वातावरण पैदा होकर रह जाए।
बच्चों के इन हँसते-खेलते रोते-गाते
खुशियों की लहरों से ही तो
मैदान में छाये शून्य की भरपाई होती है।
वरना बचपन भी दूषित होकर रह जाता
यदि ये खेल के मैदान न होते।