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बचपन - 35 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
समय नहीं रह गया है
और देर न कर समझने में
कि बचपन की अपनी माँ की गोद
जिसमें बैठकर माँ का दूध पीया है
अपना बचपन खेला है,
मानवता की गोद से,
जहाँ उसने अपनी जिंदगी का
खेल खेलना है
और जिसके आंचल के साये में
सीखेगा अर्थ जिंदगी का
मात्र एक मिट्टी की वस्तु नहीं है।
वह हमारी माँ मानवता की गोद है
उसकी गोद में ही
पल रहे हैं
संस्कार हमारे पूर्वजों के
और पलेगी आने वाले
हर बचपन की
अपनी ही पीढ़ियां।