माचिस की डिबिया, कुछ कंचे, 
गिल्ली-डंडा
छोटे-छोटे बरतन, 
एक लकड़ी और टायर, 
गोबर-मिट्टी से बना 
गुड्डे-गुड़ियों का घर, 
एक प्यारी-सी, आँखें झपकाने वाली 
प्लास्टिक की गुड़िया, 
इन साधारण-सी चीजों के बीच, 
वो असाधारण-सा अनमोल-सा
मासूम बचपन 
ढूंढ रही हूँ...
जो एक रंगबिरंगे फुग्गे, 
संतरे की गोली, 
मेले की सैर और 
परियों की कहानी में 
खुश हो जाता, 
दिवाली पर मिले एक जोड़ी कपड़ों में 
जश्न मनाता, 
झरबेरी के बेर तोड़ता, 
पेड़ के नीचे से इमलियाँ चुनता, 
कुल्फी वाले भैया के आसपास 
उछलता-कूदता...
कहीं खो गया है वह बचपन...
डामिनोज़ के चीझ़ बर्गर, 
रिमोट वाले एरोप्लेन और
नीली आँखों वाली बार्बी डॉल
की तरह महंगा हो गया है 
बचपन...