बचा सका अगर / विमलेश त्रिपाठी
बचा सका अगर
तो बचा लूँगा बूढ़े पिता के चेहरे की हँसी
माँ की उखड़ती-लड़खड़ाती साँसों के बीच
पूरी ईमानदारी से उठता
अपने बच्चे के लिए अशीष
गुल्लक में थोड़े-से खुदरे पैसे
गाढ़े दिनों के लिए ज़रूरी
बेरोज़गार भाई की आँखों में
आख़िरी साँस ले रहा विश्वास
बहन की एकांत अँधेरी ज़िन्दगी के बीच
रह-रह कर कौंधता आस का कोई जुगनु
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाए
एक गुमनाम-बेकार कवि
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सबकुछ हारकर
बचा लूँगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला एक पेड़ कोई
अगर बचा सका
तो बचा लूँगा वह गर्म खून
जिससे मिलती है रिश्तों को आँच
अगर बचा सका तो बचाऊँगा उसे ही
कृपया मुझे
कविता की दुनिया से
बेदख़ल कर दिया जाय...