बचे रहेंगे शब्द / शिव कुशवाहा
नेपथ्य में चलती क्रियाएँ
बहुत दूर तक बहा ले जाना चाहती हैं
जहाँ समय के रक्तिम हो रहे क्षणों को
पहचानना बेहद मुश्किल हो चला है
तुम समय के ताप को महसूस करो
कि जीवन-जिजीविषा कि हाँफती साँसों में
धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं हमारी सभ्यताएँ
स्याह पर्दे के पीछे
छिपे हैं बहुत से भयावह अक्स
जो देर सबेर घायल करते हैं
हमारे इतिहास का वक्षस्थल
और विकृत कर देते हैं जीवन का भूगोल
हवा में पिघल रहा है
मोम की मानिंद जहरीला होता हुआ परिवेश
और तब्दील हो रहा है
हमारे समय का वह सब कुछ
जिसे बड़े सलीके से संजोया गया
संस्कृतियों के लिखित दस्तावेजों में
बिखर रही उम्मीद की
आखिरी किरण सहेजते हुए
खत्म होती दुनिया के आखरी पायदान पर
केवल बचे रहेंगे शब्द,
और बची रहेगी कविता कि ऊष्मा..