भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचे हुए ख़्वाब / आनंद कुमार द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भूल गया हूँ अब
कैसे देखा था पहली बार तुम्हें
और क्या देखा था
क्या कहा था तुमसे और क्यों कहा था
बहुत जोर डालने पर भी याद नहीं आता
कि देखे हुए अनगिनत ख्वाबों में से
कितने टूटे
कितने बचे
मोटा मोटा अनुमान है कि वो सब टूट गए
जिन्हें
हकीकत होना था
बच वो रहे हैं
जिन्हें
सिर्फ ख्वाब रहना था ...!