बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव / सत्यवान सौरभ
नई सुबह से कामना, करिये बारम्बार!
हर बच्चा बेखौफ हो, पाये नारी प्यार!
छुपकर बैठे भेड़िये, देख रहे हैं दाँव!
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव!
मोमबत्तियाँ छोड़कर, थामों अब तलवार!
दिखे जहाँ हैवानियत, सिर दो वहीं उतार!
जीवन में आनंद का, बेटी मंतर मूल!
इसे गर्भ में मारकर, कर ना देना भूल!
बेटी कम मत आंकिये, गहरे इसके अर्थ!
कहीं लगे बेटी बिना, तुम्हे ये सृष्टि व्यर्थ!
बेटी होती प्रेम की, सागर एक अथाह!
मूरत होती मात की, इसको मिले पनाह!
छोटी-मोटी बात को, कभी न देती तूल!
हर रिश्ते को मानती, बेटी करें न भूल!
बेटी माँ का रूप है, मन ज्यों कोमल फूल!
कोख पली को मारकर, चुनों न खुद ही शूल!
बेटी घर की लाज है, आँगन शीतल छाँव!
चलकर आती द्वार पर, लक्ष्मी इसके पाँव!
बेटी चढ़े पहाड़ पर, गूंजे नभ में नाम!
करती हैं जो बेटियाँ, बड़े-बड़े सब काम!
बेटी से परिवार में, पैदा हो सम-भाव!
पहले कलियाँ ही बचें, अगर फूल का चाव!
बिन बेटी तू था कहाँ, इतना तो ले सोच!
यही वंश की बेल है, इसको तो मत नोच!
हर घर बेटी राखिये, बिन बेटी सब सून!
बिन बेटी सुधरे नहीं, घर, रिश्ते, कानून!
सास ससुर सेवा करे, बहुएँ करतीं राज।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज॥
आये दिन ही टूटती, अब रिश्तों की डोर!
बेटी औरत बाप की, कैसा कलयुग घोर!