बटोही का गीत / मोहन अम्बर
इसलिए नाराज मेरी ज़िन्दगी आराम से,
मैं सबेरे की तलाशी में चला हूँ शाम से।
पाँव दो चला तो लगा राह भी कंटीली है
नजर जो घुमायी देखा प्रीत गीली-गीली है
किन्तु सामने हज़ार आँख गीली हो गई
जुल्म को जवान देख लेखनी भी रो गई
इसलिए ही गा रहा हूँ सुनलो ज़रा मुश्किलांे
भेंट मेरी हो चुकी, दर्द के हर जाम से
मैं सवेरे की तलाशी में चला हूँ शाम से।
राह में रिझाने मुझे चांद तारे मिल गए
आँखें चौंधियाने को हजारों दीप जल गए
पर अँधेरे की किसी कराह ने जगा दिया
होश आ गया मुझे कि स्वप्न ने दग़ा दिया
इसलिए ही गा रहा हूँ सुनलो ज़रा महफिलों
क्या खरीदेगा भला, ये स्वर्ण मुझको दाम से
मैं सवेरे की तलाशी में चला हूँ शाम से।
यों तो रोज़ मित्र! मैं भी मुश्किलें घटा रहा
आँसुओं के घूँट पिये जिन्दगानी गा रहा
पर कभी जब हार कर लौटने की सोचता
तो मनुष्य मेरा मेरे चेहरे को नोचता
इसलिए ही गा रहा हूँ सुन लो ज़रा मंजिलों
हटती रहो हटती रहो तुम चाहे मुकाम से
मैं सवेरे की तलाशी में चला हूँ शाम से।