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बटोही / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
बीती काली रात, सामने खिल-खिल हँसे विहान, बटोही
हरे बाँस की सेज, मगन मन, सो जा चादर तान बटोही
सारी रैन कटी आँखों में
तारे गिने गये लाखों में
पंछी हर पल उड़ना चाहे
हुई न पर फड़कन पाँखों में
लिपटी थी जंजीर नेह की, ममता घेरे रही गेह की
सारे बंधन बिखरे, अब तो अपना पथ पहचान, बटोही
सुख में हँसा, दुखों में रोया
वह-वह काटा, जो-जो बोया
रोकड़-बही समेट, देख ले
अब तक क्या पाया, क्या खोया
कंधों चढ़ा धरा पर आते, कंधों चढ़ा धरा से जाते
कंधे चार लगे, अनंत की ओर चल दिया यान, बटोही
सारी दुनिया हँसी, किन्तु, तू
चिल्लाया था आते-आते
अब जग के रोने की बारी
तू खिल-खिल हँस जाते-जाते
जग को दे-दे उसकी माया, लौटा दे तत्वों को काया
द्वार खुल गया है पिंजरे का, हो जा अन्तर्धान बटोही