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बड़भागी वह जीव जाहि हरि-विरह सतावै / स्वामी सनातनदेव

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भगवद्विरह ॥42॥
राग सोरठ, ताल मूल 21.9.1974

बड़भागी वह जीव जाहि हरि - विरह सतावै।
जनम - जनम के पुन्य बिना अस भाग्य न पावै॥1॥
जाहि लगै यह व्याधि आधि<ref>मानसिक रोग</ref> फिर पास न आवै।
ऐसी सहज - समाधि कोउ बिरलो ही पावै॥2॥
प्रीति - सुधा के सरिस समाधिहुँ जाहि न भावै।
सेवा - सुख में मगन न जो प्रीतमहिं भुलावै॥3॥
दरस - परस की तरस ताहि के हिय सरसावै।
तरस होय जब प्रबल तबहि हरि हिय अकुलावै॥4॥
वह हरि की अकुलान करुन रस ह्वै उमँगावै।
हरि - करुना ही सों यह जान जीवन - फल पावै॥5॥
जीवन - फल है प्रेम, प्रेम प्रीतमहिं सुहावै।
प्रेमी हूँ फिर प्रेम रूप ह्वै भेद नसावै॥6॥
प्रेमी - प्रियतम भेद न फिर कहुँ कोउ लखावै।
परम तत्त्व है प्रेम, वही सब खेल खिलावै॥7॥

शब्दार्थ
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