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बड़ी घुमक्कड़ है रात / श्रीधर करुणानिधि

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साँझ होते ही
रात के कान में जूँ रेंगती है
उठकर आँख मलते हुए हो जाती है तैयार
उसे अब छोड़ जाना है अपने पीछे
बस केवल अन्धकार
कई पहचानी-अनपहचानी परछाइयाँ
जिसका इसके सिवा कुछ अर्थ नहीं
कि वे निकलती हैं चोर-दरवाज़े से
आती हैं पीछे-पीछे साँस रोककर
और फिर घुप-अन्धेरे में उतर जाती हैं
चुपके से ...

सचमुच रात ही निकलती है परछाइयाँ बनकर
बारह का घण्टा बजने के बाद
कभी-कभी सब्र का बान्ध तोड़कर
निकल जाती हैं पहले भी
सड़कों-पगडण्डियों को फलाँगते हुए
फ़सलों को चरते हुए
फाँद जाती है बड़े से पोखरे में
जाल डालने के लिए
या कबूतर के खोप में घुस जाती है रात
बड़े मज़े से पकाकर खस्सी का गोश्त
हड्डियों का ढेर लगा देती है सुबह तक
गाँव या शहर के
किसी भी घर
घुस जाती है रात
दरवाजा तोड़कर ....
और भाग जाती है
छोटी सी दुनिया गायब कर

पौ फटने के पहले
अगले दिन का प्रोग्राम बनाकर
बड़े मज़े से सो जाती है रात
अगले दिन परछाईं बनकर घूमने के लिए

अब दिन में भी घूमने लगी है
सचमुच बड़ी घुमक्कड़ है ये रात ....।