भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बड़े-बूढ़े / रमेश प्रजापति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उपेक्षित, लाचार
अपने ही भीतर की खाई में
दम घोटते
अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं का
समय को काटते ताश के पत्तों से
पार्क में बख़ानते
एक-दूसरे से अपना दुःख
बर्राते हुए देखते रहते हैं
रिश्तों का
काँच की तरह टूटकर बिखरना
घूम आते हैं हुक्का गुड़गुड़ाते
बीते दिनों की राग-रंग से भरी गलियों में


हमारे बुज़ुर्ग
घर में होते हुए भी
घर के नहीं होते
बाँटते हुए स्मृतियों की रस्सी
जकड़े रहते हैं विवशता की बेड़ी में,
लटके रहते है उनके सपने
थरथराते उजाड़ घोंसलों में
वक़्त के ठँूठ पेड़ की टहनियों पर,
अब नहीं गुदगुदाती उनको
पुराने मित्र की कोई चिट्ठी
हमारे बड़े-बुढ़े
बाज़ार के चमचमाते नये बर्तनों में
पड़े रहते हैं घर के किसी कोने में
ख़ाली कटोरे की तरह
अपने अनुभवों, और
समय की धूल में लिपटे
उपभोक्तावाद के इस कठिन दौर में
होने-न-होने के बीच
जीवन के शून्य भँवर में फँसे
अनछुए, अभिशप्त
सुबह काम पर निकला
घर का कोई भी सदस्य
यदि लौटता नहीं ठीक समय
तो इनकी डबडबाती घुच्ची आँखों में
तैरती रहती है
किसी अनिष्ट की चिंता

ज़रा-सी आहट से ही
सबसे पहले पहुँचते हैं दरवाज़े पर
इनके कान, इनकी आँख
उनकी उत्सुकता, और
हृदय का तेज़ स्पन्दन
अपने दुखों में डूबते, उतराते
हमारे बुज़ुर्ग फिर भी
चिंतित रहते हैं प्रतिदिन