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बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी / सूरदास

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राग रामकली

बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ॥
सखा-भीर लै पैठत घर मैं, आपु खाइ तौ सहिऐ ।
मैं जब चली सामुहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ॥
भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।
हरैं-हरैं बेनी गहि पाछै, बाँधी पाटी लाइ ॥
सुनु मैया, याकै गुन मोसौं, इन मोहि लयो बुलाई ।
दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चींटी सबै कढ़ाई ॥
टहल करत मैं याके घर की, यह पति सँग मिलि सोई ।
सूर-बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई ॥

भावार्थ :-- (गोपी बोली) नन्दरानी! अपना गाँव सँभालो (हम किसी दूसरे गाँव में बसेंगी)। तुम तो बड़े (सम्मानित) पिता की पुत्री हो, सो पुत्र को अच्छी बात पढ़ा (सिखला) रही हो । वह स्वयं खा ले तो सहा भी जाय, सखाओं की भीड़ लेकर घर में घुसता है । जब मैं सामने से पकड़ने चली, तब के इसके गुण (उस समय की इसकी चेष्टा)क्या कहूँ । मेरे देखने में तो ये कहीं भागकर छिप गये,मैं घर लौटकर लेट गयी, सो धीरे-धीरे पीछे से मेरी चोटी पकड़कर पलंग की पाटी में लगाकर(फँसाकर) बाँध दी! (यह सुनकर श्यामसुन्दर सरल वात्सल्यभाव से बोले - ) `मैया! इसके गुण मुझसे सुन, इसी ने मुझे बुलाया और दही में पड़ी सब चींटियाँ इसने बिना कुछ दिये ही मुझसे निकलवायीं । मैं तो इसके घर की सेवा (दही मेंसे चींटी निकालने का काम) कर रहा था और यह जाकर अपने पति के पास सो गयी ।' सूरदास जी कहते हैं कि श्याम की बात सुनकर यशोदा जी हँस पड़ी और गोपी (लज्जा से) मुख छिपाकर रह गयी ।