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बढ़ई / जहूर बख्श
Kavita Kosh से
बढ़ई हमारे यह कहलाते,
जंगल से लकड़ी मँगवाते!
फिर उस पर हथियार चलाते,
चतुराई अपनी दिखलाते!
लकड़ी आरे से चिरवाते,
फिर आरी से हैं कटवाते!
उसे बसूले से छिलवाते,
रंदा रगड़-रगड़ चिकनाते!
कुर्सी-टेबल यही बनाते,
बाबू जिनसे काम चलाते!
खाट, पलँग यह हमको देते
बदले में कुछ पैसे लेते!