बढ़ियें होय छै / कैलाश झा ‘किंकर’
जे हेय छै से बढ़ियें होय छै।
की करभो एनाहियें छै॥
बच्चा-बच्चा बूझै छै आबेॅ
नेता तेॅ बहुरुपिये होय छै।
के जितलै के हारले छोड़ऽ,
जीत-हार तेॅ होबे करै छै;
सनकल छै जनता अपने में-
रात-दिन बेकारे लड़ै छै।
लोकतंत्र में राजतंत्र छै
भाय-भतीजावाद नै झेलऽ
एक्के घर में तीन-तीन नेता
कोय पटना कोय दिल्ली गेलऽ
मार-पीट आ खून-खराबा-
नै देखै छै दुनियें होय छै॥
केतनऽ उछलऽ-कूदऽ भैया
बऽर के साथ लोकनियें होय छै।
धूम-धड़का छोड़ऽ काका,
नै फोड़ऽ तों आरो पटाका;
राजनीति तेॅ जेहन भेलै जे-
देशऽ में फेरू पड़लै डाका।
लोकतंत्र के चीर हरण छै
कुर्सी तेॅ द्रौपदी भेलै
कोय एन्नेॅ कोय उन्नेॅ घींचै
इहो बीसवीं सदी गेलै
कुर्सी खातिर भारत में तेॅ
साले-साल चुनावये होय छै।
भीष्म पितामह हक्कन कानेॅ
राजा तेॅ राृतराष्ट्रे होय छै
ऐलै भेड़िया वेश बदली केॅ
पार्टी आ उद्देश्य बदली केॅ
डंडा-झंडा आसन-भाषण
फेरु जितलै संदेश बदली केॅ
जे होय छै बढ़ियें होय छै
की करभो एनाहियै होय छै।
जे होय छै बढ़ियें होय छै
की करभो एनाहियै होय छै।