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बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गई / मजीद 'अमज़द'

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बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गई
वो ख़ुश-दिली जो दिलों को दिलों से जोड़ गई

आबद की राह पे बे-ख़्वाब धड़कनों की धमक
जो सो गए उन्हें बुझते जगों में छोड़ गई

ये ज़िंदगी की लगन है के रत-जगों की तरंग
जो जागते थे उन्हीं को ये धुन झिंझोड़ गई

वो एक टेस जिसे तेरा नाम याद रहा
कभी कभी तो मेरे दिल का साथ छोड़ गई

रूका रूका तेरे लब पर अजब सुख़न था कोई
तेरी निगह भी जिसे ना-तमाम छोड़ गई

फ़राज़-ए-दिल से उतरती हुई नदी ‘अमजद’
जहाँ जहाँ था हसीं वादियों का मोड़ गई