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बढ़ गया बादा-ए-गुलगूँ का मज़ा आखिरे शब / मख़दूम मोहिउद्दीन

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बढ़ गया बादा-ए-गुलगूँ<ref>गुलाब जैसे रंग की मदिरा</ref> का मज़ा आख़िरे शब<ref>रात के आख़िर में</ref>
और भी सुर्ख़ है रुख़सारे हया आख़िरे शब ।

मंज़िलें इश्क़ की आसाँ हुईं चलते-चलते
और चमका तेरा नक़्शे क़फ़े पा<ref>तलवों के चिह्न</ref> आख़िरे शब ।

खटखटा जाता है ज़ंजीरे दरे मयख़ाना
कोई दिवाना कोई आबला पा<ref>जिसके पैरों में छाले पड़े हों</ref> आख़िरे शब ।

साँस रुकती है छलकते हुए पैमानों की
कोई लेता था तेरा नामे वफ़ा आख़िरे शब ।

गुल है क़न्दीले हरम<ref>मंदिर-मस्जिद का दीपक</ref>, गुल है कलीसा<ref>गिरजाघर</ref> के चिराग़
सुए पैमाना<ref>मदिरा-पात्र</ref> बढ़े दस्ते दुआ आख़िरे शब ।

हाय किस धूम से निकला है शहीदों का जुलूस
जुर्म चुप सर-ब-गरेबाँ<ref>झुका हुआ सिर</ref> है जफ़ा आख़िरे शब ।

उसी अन्दाज़ से फिर सुबह का आँचल ढलके
इसी अंदाज़ से चल बादे सबा<ref>सुबह की हवा</ref> आख़िरे शब ।

शब्दार्थ
<references/>