बतर्जे-बेदिल / फ़राज़
बतर्ज़े-‘बेदिल’ <ref>फ़ारसी का प्रसिद्ध शाइर जो अपनी मुश्किलपसन्दी के लिए जाना जाता था.
मिर्ज़ा ग़ालिब भी इसके बड़े प्रशंसक थे तथा उसकी शैली में शे’र कहने में गौरव अनुभव करते थे.
उन्होंने स्वयं कहा था:
‘तर्ज़े-‘बेदिल’ में रेख़्ता कहना
असदुल्लाह ख़ाँ क़यामत है’ .</ref>
जुम्बिशे-मिज़्गाँ <ref>पलकों का झपकना</ref> कि हरदम दिलकुशा-ए-ज़ख़्म<ref>घाव की रमणीयता</ref> है
जो नज़र उठती है गोया आश्ना-ए-ज़ख़्म<ref>घाव से परिचित</ref>है
देखना आइने-मक़तल<ref>क़त्ल के वक़्त </ref>दिलफ़िगाराने-वफ़ा<ref>प्रेम में घायल हृदय वाले </ref>
इल्तिफ़ाते-तेग़े-क़ातिल<ref>क़ातिल की तलवार के कटाक्ष</ref> ख़ूंबहा<ref>ख़ून की क़ीमत</ref> -ए-ज़ख़्म है
बस कि जोशे-फ़स्ले -गुल से खुल गए सीनों के चाक
खंद-ए-गुल<ref>फूल की मुस्कान</ref> भी हम आहंगे-सदा-ए-ज़ख़्म<ref>घाव की पुकार का साथी</ref> है
हमनफ़स<ref>साथी</ref> हर आस्तीं में दश्ना-पिन्हाँ<ref>ख़ंजर छिपा हुआ</ref> है तो क्या
हम को पासे-ख़ातिरे-याराँ<ref>प्रियतम के सत्कार का ध्यान </ref> बज़ा-ए-ज़ख़्म<ref>घाव के उपयुक्त</ref> है
आ तमाशा कर कभी ऐ बे-नियाज़े-शामे-ग़म<ref>दुखभरी शाम की अनिच्छा</ref>
दीदा-ए-बे-ख़्वाब<ref>स्वप्नविहीन आँखें</ref>भी चाक़े-क़बा-ए-ज़ख़्म<ref>घाव का फटा हुआ वस्त्र</ref> है
किस से जुज़-दीवारे-मिज़्गाँ<ref>पलकों की दीवार के अतिरिक्त</ref>सैले-दर्दे-दिल रुके<ref>हृदय की वेदना</ref>
साहिले-दरिया-ए-ख़ूँ <ref>रक्त की नदी का किनारा</ref> लब <ref>होंठ</ref> आश्ना-ए-ज़ख़्म है