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बदन का नील / रमेश रंजक
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दर्द मेरे ज़िस्म पर जब ठोकता है कील
कौन है जो टाँग जाता है वहाँ कँदील
दीखती है नहीं आगत देह
और उगता भी नहीं
कँदील का संदेह
जागती जो रोशनी की झील
उसको नमन करता हूँ
झील में परछाइयाँ
ऊँचे घरों की झूलती हैं
तुम्हें क्या मालूम
कितना टीसती हैं, हूलती हैं,
पाँव जो आगे बढ़ाता है
बदन का नील
उसको नमन करता हूँ