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बदन के रूप का एजाज़ अंग अंग थी वो / शाहीन

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बदन के रूप का एजाज़ अंग अंग थी वो
मिरे लिए तो मिरी रूह की तरंग थी वो

गुलों के नाम खुली पीठ पर मिरी लिख कर
ख़िजाँ के फैलते लम्हों से महव-ए-जंग थी वो

सियह घटाओं से किरनें तराश लेती थी
मिरी हयात की इक जागती उमंग थी वो

वो ज़ख़्म-ख़ूर्दा-ए-हालात ख़ुद रही लेकिन
तमाम निकहत ओ नग़्मा तमाम रंग थी वो

न जाने कितने थे ‘शाहीन’ उस के मतवाले
अगरचे शाख़ में उलझी हुई पंतग थी वो