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बदलने का सुख / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
बदलने का सुख
ये उंगलियां
जो कभी इंगित होती थीं
दूसरों के घरों में
सूराख़ तलाशने
अब मुट्ठी बन
आकाश में लहराती हैं
और बनती हैं आवाज़
उन सूराख़ों को बंद करने के लिए
ये आंखें
अपनी चंचलता में
फिकरे कसती थीं
अब निगहबान हैं
बेआंखों की नगरी में
अकेली प्रयासरत
ये पांव
अपनी अकड़ में
ढाहते थे घरौंदे
तोड़ते थे खेतों की मेड़
अब बनाते हैं
पगडंडियां
उनके लिए
ये पूरा शरीर
जो कभी
सिर्फ़ अपना लगता था
अब
तिनके जोड़-जोड़
बना रहा है नई दुनिया
उनके लिए
सिर्फ़ उनके लिए।