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बदलाव / अमरेन्द्र

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घर तो रहने लायक ही था, भले नहीं है अब
पाँच कोठरी ऊपर-नीचे, रहने वाले पाँच
हिम के भीतर कभी सुलगती देखी तुमने आँच
नये जमाने का अजगुत है प्यारे यह करतब ।

एक कमरे में टेबुल, टी. वी, कुर्सी और पलंग हैं
गुलदस्ता, झालर-फानुस हैं, दर्पण आदमकद है
बिछे हुए कालीन कीमती, पत्नी तो गदगद है
धनतेरस में आए इतने देख पड़ोसी दंग हैं ।

हर कमरे में एक ट्रंक है सामानों की खातिर
बत्र्तन-बासन, छूरी-चम्मच की भरमार लगी है
सच कहता हूँ यह तो जीवन के ही साथ ठगी है
पूंजी का यह ढोंग-दिखावा कितना जालिम-शातिर।

घर में सोते किसिम-किसिम के पंखे, कूलर, इत्र
बाहर में ही खाट लगाए मैं रहता हूँ, मित्र ।