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बदलाव / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
कुछ लोग ज़िन्दगी को संवारते रहे उम्र भर
कुछ लोग उसे मदिरा समझ के पी गये
तारीख के पन्नों में फंसाने है उनके
जो लोगों के नाम अपनी ज़िन्दगी जी गये
ये वक्त किसी शाह का गुलाम तो नहीं
इसको जकड़ने वाले खुद ही नहीं रहे
खुद पर गुरूर कभी भी करना न दोस्तों
इस दर से गिरने वाले शातिर नहीं रहे
आओ तुम्हें दिखायें किले मिनार उनके
जो खड़े थे मजबूत वो पत्थर नहीं रहे
जो बाजार में लोगों का करते थे सौदा
‘बाग़ी’ जमीर बेचकर वो जिन्दा नहीं रहे