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बदलाव / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
अच्छी लगने लगी है
लोकल ट्रेन की भीड़
हरी मिर्च के संग वड़ापाव
और कटिंग चाय
समंदर की नमकीन चिपचिपी हवाएँ
उमस भरी शाम
कंपाउंड में क्रिकेट खेलते बच्चों का शोर
लाउडस्पीकर पर पांच वक्त की नमाज़
मंदिर में आरती के संग
मंजीरे, ढोल, नगाड़ों का शोर
सुबह शाम ऑफिस की भीड़ में
जाम में घंटों फंसे रहना
नीरस समय का
यूँ ही गुज़रते रहना
पिघलते रिश्तो की आंखमिचौली में
एकाकी हुए जीवन के सूनेपन का
अनंत काल तक पसरे रहना
अब अच्छा लगने लगा है
खुद से प्यार जो करने लगी हूँ