इतने आगे निकल गये हम।
मानवता को कुचल गये हम।
डरी हुईं कुलदीपशिखाएँ,
भ्रणों को ही निगल गये हम।
ज्वारिल इतनी हुईं कामना,
पटरी से ही फिसल गये हम।
बढती रही सफेदी अपनी,
जबकि घूँटते गरल गये हम।
सोच रहे क्या थे क्या हैं अब?
इतना कैसे बदल गये हम?
मुहर चाँदनी लगा रही है
सत्यापित हो असल गये हम।
घोर संकटों ने धकियाया,
गिरते-गिरते सम्हल गये हम।
पग-पग पर अवरोध खडे़ हैं-
फिर भी होते सफल गये हम।