भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बदल रहे हैं दिन / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुनिया कल थी जहाँ
आज अभी-
नहीं है वहाँ।
बँधी धार में जागा ज्वार
डूब गये हैं किनारे
बाढ़ में।

सामने ही तिर रही है
रक्त में सनी
निष्ठुरता में डूबी भयानक स्मृतियाँ

खुल रहे हैं दरवाजे़ और खिड़कियाँ-
बन्द द्वार
अब सबके लिए हैं
शुभकामनाएँ और प्यार।
धरती काँप रही है
पैरों तले मची हड़कम्प।
मुँह फाड़े रसातल से-
अगर बच गये
तो समझ पड़ेगा,
सबसे बड़ा सच है
मनुष्यत्व।

खुद को सबसे चालाक समझकर
अपनी संगीन उठाये
अविश्वसनीय हँसी हँस रहा है
बेवकूफ़

बदल रहे हैं दिन
उसे पता नहीं है
कि एक ही नदी में डुबकी नहीं लगा सकते
दो-दो बार।