बनूँ सदा रोगी की औषध / हनुमानप्रसाद पोद्दार
(राग बसन्त-ताल कहरवा)
बनूँ सदा रोगी की औषध, निपुण वैद्य मैं नाशक- रोग।
बनूँ सदा आतुरका आश्रय, दुख-भोगीके सुखका भोग॥
बनूँ सदा निर्बलका बल मैं, बनूँ नित्य भूखेका अन्न।
बनूँ पिपासितका पानी मैं, हों मुझसे उल्लसित विपन्न॥
बनूँ अमित धन-निधि, दरिद्रका हर लूँ सभी अभाव अपार।
बनूँ मान अपमानितका मैं, बनूँ तिरस्कृत का सत्कार॥
बनूँ सुखद मैं यान पंगु का, पुल बनकर कर दूँ मैं पार।
बनूँ नाव मैं जल-निमग्रकी, करूँ सहज उसका उद्धार॥
बनूँ मित्र मैं मित्रहीनका, पितृ-हीनका पालक बाप।
बनूँ पुत्र मैं पुत्रहीनका, मातृहीनकी माता आप॥
बनूँ बन्धु मैं बन्धुहीनका, थकित पथिकका आश्रय-धाम।
बनूँ पड़ोसीका हितकारक, बनूँ श्रमितका मैं विश्राम॥
बनूँ सभीका निकट कुटुंबी, करूँ सभीकी सेवा नित्य।
बनूँ कष्ट में साथी सबका, झेलूँ उनके कष्टस्न् अनित्य॥
बनूँ नाथ मैं लघु अनाथका, असहायोंका बनूँ सहाय।
बनूँ मार्ग मैं मार्गभ्रष्ट का, निरुपायोंका बनूँ उपाय॥
बनूँ सेज सोनेवालोंकी, नग्र पदोंका पाद-त्राण।
बनूँ दास दासार्थीका मैं, बनूँ अकल्याणोंका कल्याण॥
बनूँ दीप दीपक-इच्छुकका, घाम-प्रपीडितकी छाया।
बनूँ ज्ञान अज्ञानीका मैं, हरण करूँ उसकी माया॥
बनूँ सभीका सभी तरहका सुख-सुहाग, कर दुःख-हरण।
सबको सुखी बना दूँ, कर लूँ समुद सभीका दुःख-वरण॥