बने वृक्ष दोनों ही / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
यमलार्जुन उद्धार
कृष्ण का मुझे याद आता है,
बाल रूप मोहन का
मन का मोह मिटा जाता है।
रूद्रगणों मे हुए प्रतिष्ठित
मणिग्रीव नलकूबर
पद के मद मे हुए चूर
कर सुरापान जीभरकर।
यक्षिणियों के साथ
ल्गे जलक्रीड़ा करने हँसकर,
मदोन्मत्त दोनों भाई
मर्यादा गये भंगकर।
हरिगुण गाते हुए
उसी क्षण श्री देवर्षि पधारे,
वामाओं ने देख लाजवश
अंगवस्त्र सब धारे।
किन्तु यक्ष पुत्रों ने मदवश
निज कर्तव्य भुलाया
रहे निर्वसन ही, दोनों ने
रंच न धर्म निभाया।
देख अहं वस जड़ता,
रोक न पाये मुनि निज मन को,
देकर शाप बनाया जड़ था
यक्षों के जीवन को।
ऋषिवाणी सुन,
लगे काँपने यक्ष पुत्र घबराकर,
अहं शून्य हो गये उसीक्षण
बोले हाथ जोड़कर -
सन्त भक्त करूणकर
होते है ऐसा जाना है
दयाभाव उनका सदैव से
जाना पहचाना है।
हे प्रणम्य देवर्षि।
आपका शाप अमोघ अचंचल-
कब होगा उद्धार
कृपाकर कहें आप निज तपबल।
अंहकार के कारण
तुमने अनुचित उचित भुलाया,
मन के ही अधीन
सभी कुछ पाया हुआ गवाया।ा
जब द्वापर में
भार धरा का हरने हरि आयेंगे,
डनका दर्शन करके
पाप तुम्हार मिट जायेंगे।
पाकर दिव्य रूप
फिर अपने लोक लौट जाओगे,
फिर अपने अधिकार
पूर्वक सब सुख तुम पाओगे।
दोनों यक्ष, कृष्ण-
जपते जपते यमुना तट आये,
बने वृक्ष दोनों ही
सुन्दर यमलार्जुन कहलाये।
जड़ होकर भी दिव्य चेतना,
कृष्ण कृष्ण गाती थी,
बाट जोहती हुई कृष्ण की
घड़ी-घड़ी जाती थी।
यमलार्जुन की मौन
साधना से मैं अति हषित था,
अजपा जप से वंश
हमारा नित नव उत्कर्षित था।
बालकृष्ण ने जब
आकर दोनों को मुक्त किया है,
बिन माँगे ही दर्शन का
धन मुझे अकूत दिया है।
मोहन का वह
दिव्य रूप अब तक उर मे अंकित है
जिसमें निहित जगत जीवन का
मंगलमय हित है।
यज्ञ और पुंण्यो का फल
क्ब मिला किसे क्या जाने?
पर मेरी सेवा के फल है
मिले सदा मनमाने।
जिसको मैंने दिया न फल हो
ऐसा जीव न कोई,
मधुर-मधुर फल रस में
रसना किसने नहीं डुबोयी?
सुर नर मुनि सबने ही
जिसको दुर्लभ बतलाया है,
जड़ होकर भी मैंने वह
चैतन्य परम पाया है।