बन्धन-मोचन: अभिनिष्क्रमण / बुद्ध-बोध / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
रूपवती युवती कल्याणी पति - सेवामे लीन
षोडश कला-कलाप षोडशी अहनिश प्रणय-प्रवीण
नभ उड़ंत जे मुक्त विहंगम से पुनि स्वर्णिम डोर
घर-पिंजड़ामे रमथु राति - दिन एहने करथि ङोर।।18।।
अन्तर्वत्नी पत्नी गोपा यशोधरा अभिधान
दोहदवती जन्म देलनि शिशु राहुल नाम निदान
निशा-दिवसकेर संयोगहिँ समुदित सन्तति जनि भोर
फल सन्तान विवाहक सहजहिँ यशोधराकेर कोर।।19।।
वात्सल्यक बन्धन पड़ि सहजहिँ बसबथु नव संसार
सभ निश्चिन्त छला चिन्तित पुनि केवल राजकुमार
सोचि-सोचि तनि मन ओनाइत रहल, गहल रुचि-रंग
वात्सल्यक बन्धकेँ तोड़ब सहज न रहत प्रसंग।।20।।
बन्धन - अनुबन्धन नित बढ़इछ गृह-परिवार उलंग
उबडुब जीवन - तरी खेवि के सकय भवाब्धि तरंग
नभ उड़ंत ई दिव्य विहंगम प्रेमक पिंजड़ा बन्द
कलधुनि गुनि पुनि बन्धनमे नहि पड़य कदाचित फंद।।21।।
सोचि-सोचि से राजकुमार गोतमक मन अकुलाय
उड़ि चलि जाइ मुक्त वन-परिसर, नहि किछु बंधनदाय
सुतलि मुक्तकेशी यशोधरा शिशुकेँ हृदय लगाय
छोड़ि-छोड़ि सुत - वित पत्नी सुख बुझि संसार बलाय।।22।।
चलि देलनि सिद्धार्थ परम तत्त्वक अन्वेषण लेल
सांसारिक बंधन कोनहु ने बान्हि सकल बगमेल
अता - पता नहि हंस मानसक उड़ला दूर दुरत
हंसी कनइत, कमल मुकुल कुम्हलाइत झरइत हंत!23।।
जननी-जनक बन्धु-बान्धव जन-परिजन व्याकुल चित्त
कतबहु खोज कयल सब निष्फल, वन-रोदन अनिमित्त
गाम-गमइ जनपद पुर-परिसर सबतरि तकइत लोक
थाकि गेल कत दिन धरि कतहु न भेटल, व्यापित शोक।।24।।