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बन के दुनिया का तमाशा मोतबर हो जाएँगे / सलीम अहमद

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बन के दुनिया का तमाशा मोतबर हो जाएँगे
सब को हँसता देख कर हम चश्म-ए-तर हो जाएँगे

मुझ को क़द्रों के बदलने से ये होगा फ़ाएदा
मेरे जितने ऐब हैं सारे हुनर हो जाएँगे

आज अपने जिस्म को तू जिस क़दर चाहे छुपा
रफ़्ता रफ़्ता तेरे पकड़े मुख़्तसर हो जाएँगे

रफ़्ता रफ़्ता उन से उड़ जाएगी यक-जाई की बू
आज जो घर में वो सब दीवार ओ दर हो जाएँगे

आते जाते रह-रवों को देखता हूँ इस तरह
राह चलते लोग जैसे हम-सफ़र हो जाएँगे

आदमी ख़ुद अपने अंदर कर्बला बन जाएगा
सारे जज़्बे ख़ैर के नेज़ों पे सर हो जाएँगे

गर्मी-ए-रफ़्तार से वो आग है ज़ेर-ए-क़दम
मेरे नक़्श-ए-पा चराग़-ए-रह-गुज़र हो जाएँगे

कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
क्या ख़बर थी वो भी हर्फ़-ए-मुख़्तसर हो जाएँगे

क्या कहें ऐसे तक़ाजे हैं मोहब्बत के तो हम
अपनी बे-ताबी से हम रक़्स-ए-शरर हो जाएँगे

एक साअत ऐसी आएगी कि ये वस्ल ओ फ़िराक़
मेरे रंग-ए-बे-दिली से यक दिगर हो जाएँगे

काख़-ओ-कू-ए-अहल-ए-दौलत की बिना है रेत पर
इक धमाके से ये सब ज़ेर ओ ज़बर हो जाएँगे

ये अजब शब है उन्हें सोने न दो वर्ना ‘सलीम’
ख़्वाब बच्चों के लिए वहशत असर हो जाएँगे