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बरगद / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
स्तब्धता सुनसान
पथ वीरान,
सीमाहीन नीला व्योम !
मटमैली धरा पर
वृक्ष बरगद का झुका
मानों कि है प्राचीनता साक्षात् !
निर्बल
वृद्ध-सा जर्जर शिथिल,
उखड़ी हुई साँसें,
जड़ें भू पर बिछी हैं
और गिरने के मरण-क्षण पर
भयंकर स्वप्न ने
कंपित किया झकझोर कर
भय की बना मुद्रा
खड़ा यों कर दिया !
उड़कर धूल कहना चाहती है
'ओ गगनचुम्बी !
गिरो
पूरी न आकांक्षा हुई,
आकर मिलो मुझसे
विवश होकर धराशायी !
न जाना मूल्य लघुता का
किया उपहास !'
जड़ के पास
खंडित औ' कुरूपा
जो रँगा सिन्दूर से
हनुमान-सा पाषाण
टिक कर गोद में बैठा
कि जिसकी अर्चना करते
मनुज कितने
नमन हो परिक्रमा करते
व आधी रात को आ
श्वान जिसको चाटते !
1959