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बरगद / संजय चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
ज़मीन में गहरी अड़ी है जिसकी परम्परा
और छतरी की तरह फैली है जिसकी कोशिश
उलझा है जो धरती और आसमान के बीच
कार्बनिक रसायन की गुत्थियों में बैंज़ीन-चक्र की तरह
जड़ बनकर फिर ज़मीन पकड़ते हैं जिसके तने
सदियों से गाँव के बाहर जुगाली करता पिता-सा डायनोसार
जिसकी छाती पर बैठे हैं मकड़ी, बन्दर और गिलहरियाँ
और जो चीटीं रेंगती है उसके पत्तों पर
ज़मीन में गहरी अड़ी है उसकी भी परम्परा
और छतरी की तरह फैली है उसकी भी कोशिश।