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बरसात (सावन) / पतझड़ / श्रीउमेश

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बीती गेलै गरमी के दिन, आबी गेलै बरसा-काल।
बरसा-बून्दोॅ सें नाही केॅ धरती भेलै खूब निहाल॥
उठलै करका मेघ छितिज सें, सन्-सन् बदलोॅ आबै छै।
घनन-घनन संमीर नाद सें राग मल्हार सुनाबै छै॥
मेघोॅ केॅ देखोॅ तेॅ कतेॅ रूप धरी केॅ आबै छै?
हाथी-घोड़ा ऊँट-गधा के रूप अनूप देखाबै छै॥
कालिदास के यक्छोॅ के ई दूत बनी केॅ ऐलोॅ छै।
छिप्रा में डुबकी मारी केॅ मानोॅ खूब नहैलोॅ छै॥
उज्जेनी में महाकाल-शिव के करतेॅ पूरा सम्मान।
गाछी के फुनगी पर दौड़ी करतै अलकापुर प्रस्थान॥
जल्दी-जल्दी जाय सुनैतै यक्छ-प्रिया केॅ शुभ संदेस।
-विरही के ऊ विरह-व्यथा के रखतै पूरा भावावेस॥
झिल्लीं दै छै सूर, पपैया गावै छै पी-पी बोली।
बेंगें दै छै ताल, मंयूरी नाचै छै डैनों खोली॥
रस बरसैलें सावन ऐलै, गरमी के भेलै अवसान।
रिमझिम-रिमझिम वै बरसासें धरती के होलै असलान॥
यै बरसा में सुरुज देव के देखै छी, छै खूब निनान।
आज कहाँ छै जेठोॅ के दुपहरिया के ऊ बढ़लोॅ सान?
अपना तीव्र-तपन सें जें झुलसैलेॅ छेलै धरती हाय!
आज वही सुरजोॅ केॅ देखोॅ मेघोॅ तोॅर नुकैलोॅ जाय॥
सावनोॅ के फुहिया में बुतरु-बतरा नाची रहलोॅ छै।
खुसी-खुसी सें मस्ती के धारोॅ में देखोॅ बहलोॅ छै॥
बिचियाबै छै ”देखोॅ गरमी के फुटलै भंड़ा।
एखनी सौंसे धरती पर सावनों के फहरैलै झंडा॥“
बरसा रानी के डरसें मेघोॅ तर जाय नुकैलोॅ छै।
करकी बकरी पेट तर पढवा जेना सुटकैलोॅ छै॥